बोकड़िया-बलदोटा
संवत् 707 में रामसीण नगर पर चौहान वंशीय राजा सामंतसिंह
राज्य करते थे। एकदा अरण्य में आखेट क्रिड़ा के समय सामंतसिंह की भेंट एक
जैनाचार्य से हुई। शिकार जैसी हिंसक प्रवृति को दुर्व्यसन बताते हुए,
जैनाचार्य श्री जयदेवसूरि ने राजा को शिकार आदि सात व्यसन के त्याग की प्रेरणा दी।आचार्यवर जयदेवसूरि ने स्पष्ट करते हुए कहा,
“द्युत च मांस च सुरा च वेश्या, पापार्धिचौर्ये पर-दार सेवा।
एतानि सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति॥“
राजा सामंतसिंह ने जीवदया का प्रतिबोध पाकर, जैन धर्म अपनाया एवं श्रावकोचित व्रत-नियम ग्रहण किए।
सामंतसिंह के दो पुत्र थे, श्रीपाल एव चाहड़देव। इन्होने संवत् 709 में भगवान महावीर का “जांगलगढ़” नामक जिनप्रासाद बनवाया। प्रतिष्ठा भट्टरक श्री देवानन्द्सूरि ने सम्पन्न की।
आगे चलकर इस वंश के बलिष्ट यौद्धाओं ने रामसीण पर हुए आक्रमण का बलपूर्वक प्रतिरोध किया एवं उन्हे पराजित किया। परिणाम स्वरूप इन्हे साक्षात बलदेव की उपाधि मिली। इनकी संतति को “बलदोटा” विरुद प्राप्त हुआ। संवत् 1011 में इन्होने "बलदोट" नामक एक नगर बसाया।
आगे चलकर श्रीपाल के वंशज मण्डोर आ बसे। यहाँ श्री पहाड़ जी बलदौटा ने, संवत 1095 में श्री कुंथुनाथ भगवान का बावन जिनालय मन्दिर बनवाया। सम्भवतः आचार्य वर्धमानसूरि ने प्रतिष्ठा सम्पन्न की।
संवत् 1123 में मण्डोर पर किसी सुलतान का भीषण आक्रमण हुआ। उसने मण्डोर को तहस नहस कर कब्जा कर लिया। वहां प्रतिदिन चार हजार बकरों का वध किया जाता था। उस समय श्रेष्ठ पहाड़ जी के पुत्र देवधर जी बड़े साहसी पुरुष थे। जीवों की हिंसा देखकर उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो उठा। उन्होने सुलतान से मिलकर उसे समझाने की ठानी। सुलतान को युक्तियुक्त समाधान देकर, हजारों बकरों को अभयदान दिलवाया। इस जीवदया-प्रतिपाल के परिणाम स्वरूप, संवत् 1123 में देवधर जी को “बोकड़िया” विरुद प्राप्त हुआ। इस तरह श्री देवधर जी बलदोटा से बोकड़िया गौत्र की स्थापना हुई।
- हंसराज बोकड़िया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें