बोकड़िया गोत्र में यह जानकारी पहले से ही थी कि बोकड़िया और बलदोटा एक ही गोत्र है। कई बोकड़िया बंधुओं से मिलना हुआ तो उन्होने भी इस बात को स्वीकार किया कि बोकड़िया बलदौटा एक ही गोत्र के दो नाम है, जब बलदोटा बंधुओं से मिलना हुआ तो उन्होने भी वही बात दोहराई कि बोकड़िया बलदोटा भाई-भाई है, अर्थात् एक ही गोत्र के दो नाम है।
बोकड़िया गोत्र के इतिहास की खोज के समय जब बोकड़िया गोत्र का नामोल्लेख से अधिक कोई कोई उल्लेख ओसवाल इतिहास ग्रंथो में नहीं मिला तो एक प्रारम्भिक सूत्र के थामने के उद्देश्य से बलदोटा गौत्र के इतिहास की खोज की गई। और बलदोटा गौत्र का एक संक्षिप्त इतिहास, श्री सुखसम्पतराज भंड़ारी लिखित "ओसवाल जाति का इतिहास" नामक वृहद ग्रंथ में मिल गया। उल्लेख इस प्रकार था……
"ऐसी किम्बदंति है कि संवत् 709 में रामसीन नामक नगर में श्री प्रद्योतनसूरि महाराज मे चाहड़देव को जैन धर्म का उपदेश देकर श्रावक बनाया। चाहड़देव के पुत्र बालतदेव से 'बलदोटा' गौत्र की स्थापना हुई। इन्होने अपने नाम से 'बलदोटा' नामक एक गाँव आबाद किया।"
हालांकि इसमें बोकड़िया शब्द का कहीं उल्लेख नहीं था किन्तु एक "गाँव बसाने" के उल्लेख ने रोमांचित कर दिया। साथ ही कुछ सूत्र तो मिले ही जिस आधार पर खोज का मार्ग प्रारम्भ होता है। 'रामसीन', 'प्रद्योतनसूरि', 'चाहड़देव', 'बालतदेव', 'बलदोटा गाँव' आदि। रामसीन नगर के इतिहास के बारे तो कुछ खास नहीं मिला, हां रामसीन कस्बे का अस्तित्व मिल गया, प्रद्योतनसूरि का काल संवत 709 से मेल नहीं खा रहा था। चाहड़देव व बालतदेव का नाम किसी राजवंश में नजर नहीं आ रहा था। अन्ततः बलदोटा गांव की खोज प्रारम्भ की गई। मानचित्र में रामसीन के आस पास नजर दौड़ाने पर नजर "बरलूट" नामक एक गांव पर ठहरी। बरलूट जाकर खोज करने पर पाया कि हां इस गांव का प्राचीन नाम "बलदोट" ही था। ग्रामवासियों से पूछने पर उन्होने प्राचीन पार्श्वनाथ मन्दिर में एक शिलालेख होने की बात कही, और कहा, कि इस शिलालेख में बलदउट का स्पष्ट उल्लेख है। यह शिलालेख मन्दिर के पुनर्निर्माण के समय तल की गहराई से प्राप्त हुआ था। उत्सुकता से उस शिलालेख को देखा गया तो बात सही निकली…
संवत 1283 का यह शिलालेख जालोर सोनगरा चौहान शासक उदयसिंह के समय का था। यह मन्दिर जिसका नाम 'मनणसिंह विहार' था जो मनणसिंह के श्रेयार्थ, वृहदगच्छ के वादिवेवाचार्य संताने श्री धनेश्वर सूरि के शिष्य गुण……सिंहसूरि के हाथों प्रतिष्ठित था। इसमें स्पष्ट इस नगर का नाम "बलदउट" उल्लेखित था।
अर्थात् बलदोटा गोत्र के इतिहास में वर्णित बलदोट गांव बसाने का तथ्य यथार्थ था और विद्यमान भी। गोत्र का इतिहास सत्य के करीब होने का यह मजबूत साक्ष्य था।
उसी दौरान हमारी कुलगुरुओं की खोज भी सफल हुई और हमें हमारी वंशावली की प्रतिलिपि उपलब्ध होने के सुखद समाचार मिले, पुरानी लिपी पढ़ने वाले के सहयोग से उस वंशावली के प्रारम्भीक अंश का उतारा लिया गया। और हमारे आश्यचर्य का ठिकाना न रहा कि इस वंशावली का शीर्षक ही "बोकड़िया-बलदोटा" था। और इतिहास में वर्णित बलदोट गाँव बसाने की वही घटना उल्लेखित थी।
यह प्रबल साक्ष्य था यह निर्णय करने में कि "बोकडिया और बलदोटा" एक ही गोत्र है।
- हंसराज बोकड़िया
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