प्रश्न होता है, बोकड़िया गौत्र के प्रतिबोधक आचार्य कौन थे? यह जानने के लिए हमारे पास पांच उल्लेख उपलब्ध है। जिस में दो तो ओसवाल इतिहासकारों के बलदोटा गौत्र के उल्लेख है और तीन भिन्न भिन्न वंशावलियों के उल्लेख है……
1- सुखसम्पतराज भंडारी रचित "ओसवाल जाति का इतिहास"
"ऐसी किम्बदंति है कि संवत् 709 में रामसीन नामक नगर में श्री प्रद्योतनसूरि महाराज मे चाहड़देव को जैन धर्म का उपदेश देकर श्रावक बनाया। चाहड़देव के पुत्र बालतदेव से 'बलदोटा' गौत्र की स्थापना हुई। इन्होने अपने नाम से 'बलदोटा' नामक एक गाँव आबाद किया।"
2- सोहनलाल जी भंसाली रचित "ओसवाल वंश अनुसंधान के आलोक में"
"ऐसा कहा जाता है कि चाहड़देव ने प्रतिबोध पाकर उद्योतनसूरि से जैन धर्म स्वीकार किया।…………"
3- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 1
"………जद राजा गुरां रा वचन थी सात व्यसन रो त्याग किधो। सिवधर्म छोड्यो, जैन धर्म री साधना आराधिता। रात्री भोजन निवार्यो, मद-मांस छोड्यो, घोडा हाथी ने छाण्यो पाणी पावण लागा। राजा श्रावग रो धरम आदरियो, भट्टारक श्री वर्धमानसूरि प्रतिबोध दंता।"
4- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 2
………संवत् 506 रा वैसाख सुदी 3 दिने प्रतिबोधिता भट्टारक श्री देवेन्द्रसूरि……
( वंशावली : कुलगुरू धनरूप जी वड़गच्छ पोशाल, जोजावर)
5- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 2
"रामसीण के राजा सोमदेव, पुत्र नहीं, शिकार के लिए निकले, बड़गच्छ के आचार्य जयदेवायन्द्रसूरि द्वारा प्रतिबोध होकर जैन धर्म स्वीकार।"
भंड़ारी जी ने संवत 707 देते हुए प्रतिबोधक आचार्य का नाम प्रद्योतनसूरि दिया है जबकि प्रद्योतनसूरि का काल विक्रम की दूसरी शताब्दी है। उन्ही के इतिहास का अनुसरण करते हुए भंसाली जी ने काल मिलाने की दृष्टि से प्रद्योतनसूरि से उद्योतनसूरि कर दिया है। हालांकि उद्योतनसूरि वड़गच्छ के संस्थापक माने गए है भूतोडिया जी ने "इतिहास की अमरबेल ओसवाल" में प्रतिबोधक आचार्य का नाम तो प्रद्योतनसूरि ही रखा है किन्तु प्रद्योतनसूरि का समय मिलाने के लिए, संवत 707 को बदलकर संवत 107 कर दिया है।
वंशावलीकारों में भी पीछे के प्रसिद्ध आचार्यों को जोडने की प्रवृति दृष्टिगोचर होती है, वर्धमानसूरि प्रसिद्ध और उपरोक्त उद्योतनसूरि के शिष्य थे। जो भी हो किन्तु यह उलटफेर वड़गच्छ मान्यता के इर्द्गिर्द मंडराता स्पष्ट है। वंशावली भी वड़गच्छ के महात्मा रखते थे अतः देवेन्द्रसूरि व जयदेवायन्द्रसूरि वड़गच्छ की मान्यता अनुसार होने चाहिए।
प्रायः जिस गच्छ से प्रतिबोधित गोत्रें होती उसी गच्छ के साधु अपने प्रतिबोधित श्रावको के धार्मिक आयोजन करते थे। कालान्तर में ये साधु स्थिल हुए और अपने गच्छ के श्रावकों की वंशावलियां लिखने लगे, वे कुलगुरु अथवा वहीवंचा कहलाए। समय समय अथवा उत्सव आयोजन में आकर इतिहास वंशक्रम सुनाते, नई पीढीयों का नामांकन करते और अपना भरण पोषण चलाते। हमारी वंशावली के कुलगुरु वड़गच्छ पोशाल के है इससे सिद्ध होता है कि हमारा मूल गच्छ वड़गच्छ (वृहदगच्छ) है और प्रतिबोधक आचार्य वृहदगच्छ के होने चाहिए। किन्तु वड़गच्छ बहुत बादमें अस्तित्व में आया, यह पहले चन्द्रकुल व वनवासी गच्छ कहलाता था। वृहद्गच्छ, वृहदतपागच्छ एवं तपागच्छ की 43 तक पाटपरम्परा समान है 43 वे पाट के बाद ही ये गच्छ अलग अलग हुए।
उपरोक्त प्रतिबोधक आचार्य के नामों में लेखको ने अज्ञानतावश बहुत ही उलटफेर कर दिए है। चुंकि यह तो निश्चित है कि हमारी वंशावली वड़गच्छ के कुलगुरु रखते थे अतः वड़गच्छ की मान्यता के आचार्य होने चाहिए। वृहदगच्छ गुर्वावली एवं तपागच्छ पट्टावली देखने पर संवत् 707, करीबन 22 वे पट्टधर आचार्य जयदेवसूरि के समकालीन बैठता है। बलदोटा वंशावली में जो जयदेवायन्दर सूरि लिखा मिलता है वह अधिक उचित प्रतीत होता है।
इसलिए हमारा स्पष्ट मत है कि बोकड़िया गौत्र के प्रतिबोधक आचार्य "वड़गच्छ गुर्वावली" में उल्लेखित 22 वे पट्टधर जयदेवसूरि ही होने चाहिए और आपका समय भी संवत 707 के आसपास ठहरता है।
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