रविवार, 30 अगस्त 2015

बोकड़िया गौत्र के प्रतिबोधक आचार्य


प्रश्न होता है, बोकड़िया गौत्र के प्रतिबोधक आचार्य कौन थे? यह जानने के लिए हमारे पास पांच उल्लेख उपलब्ध है। जिस में दो तो ओसवाल इतिहासकारों के बलदोटा गौत्र के उल्लेख है और तीन भिन्न भिन्न वंशावलियों के उल्लेख है……

1- सुखसम्पतराज भंडारी रचित "ओसवाल जाति का इतिहास"

"ऐसी किम्बदंति है कि संवत् 709 में रामसीन नामक नगर में श्री प्रद्योतनसूरि महाराज मे चाहड़देव को जैन धर्म का उपदेश देकर श्रावक बनाया। चाहड़देव के पुत्र बालतदेव से 'बलदोटा' गौत्र की स्थापना हुई। इन्होने अपने नाम से 'बलदोटा' नामक एक गाँव आबाद किया।"

2- सोहनलाल जी भंसाली रचित "ओसवाल वंश अनुसंधान के आलोक में"
 "ऐसा कहा जाता है कि चाहड़देव ने प्रतिबोध पाकर उद्योतनसूरि से जैन धर्म स्वीकार किया।…………"

3- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 1
"………जद राजा गुरां रा वचन थी सात व्यसन रो त्याग किधो। सिवधर्म छोड्यो, जैन धर्म री साधना आराधिता। रात्री भोजन निवार्यो, मद-मांस छोड्यो, घोडा हाथी ने छाण्यो पाणी पावण लागा। राजा श्रावग रो धरम आदरियो, भट्टारक श्री वर्धमानसूरि प्रतिबोध दंता।"

4- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 2
………संवत् 506 रा वैसाख सुदी 3 दिने प्रतिबोधिता भट्टारक श्री देवेन्द्रसूरि……
( वंशावली : कुलगुरू धनरूप जी वड़गच्छ पोशाल, जोजावर)

5- बोकड़िया-बलदोटा वंशावली क्रमांक 2
"रामसीण के राजा सोमदेव, पुत्र नहीं, शिकार के लिए निकले, बड़गच्छ के आचार्य जयदेवायन्द्रसूरि द्वारा प्रतिबोध होकर जैन धर्म स्वीकार।"

भंड़ारी जी ने संवत 707 देते हुए प्रतिबोधक आचार्य का नाम प्रद्योतनसूरि दिया है जबकि प्रद्योतनसूरि का काल विक्रम की दूसरी शताब्दी है। उन्ही के इतिहास का अनुसरण करते हुए भंसाली जी ने काल मिलाने की दृष्टि से प्रद्योतनसूरि से उद्योतनसूरि कर दिया है। हालांकि उद्योतनसूरि वड़गच्छ के संस्थापक माने गए है भूतोडिया जी ने "इतिहास की अमरबेल ओसवाल" में प्रतिबोधक आचार्य का नाम तो प्रद्योतनसूरि ही रखा है किन्तु प्रद्योतनसूरि का समय  मिलाने के लिए, संवत 707 को बदलकर संवत 107 कर दिया है।
वंशावलीकारों में भी पीछे के प्रसिद्ध आचार्यों को जोडने की प्रवृति दृष्टिगोचर होती है, वर्धमानसूरि प्रसिद्ध और उपरोक्त उद्योतनसूरि के शिष्य थे।  जो भी हो किन्तु यह उलटफेर वड़गच्छ मान्यता के इर्द्गिर्द मंडराता स्पष्ट है। वंशावली भी वड़गच्छ के महात्मा रखते थे अतः देवेन्द्रसूरि जयदेवायन्द्रसूरि वड़गच्छ की मान्यता अनुसार होने चाहिए।

प्रायः जिस गच्छ से प्रतिबोधित गोत्रें होती उसी गच्छ के साधु अपने प्रतिबोधित श्रावको के धार्मिक आयोजन करते थे। कालान्तर में ये साधु स्थिल हुए और अपने गच्छ के श्रावकों की वंशावलियां लिखने लगे, वे कुलगुरु अथवा वहीवंचा कहलाए। समय समय अथवा उत्सव आयोजन में आकर इतिहास वंशक्रम सुनाते, नई पीढीयों का नामांकन करते और अपना भरण पोषण चलाते। हमारी वंशावली के कुलगुरु वड़गच्छ पोशाल के है इससे सिद्ध होता है कि हमारा मूल गच्छ वड़गच्छ (वृहदगच्छ) है और प्रतिबोधक आचार्य वृहदगच्छ के होने चाहिए। किन्तु वड़गच्छ बहुत बादमें अस्तित्व में आया, यह पहले चन्द्रकुल व वनवासी गच्छ कहलाता था। वृहद्गच्छ, वृहदतपागच्छ एवं तपागच्छ की 43 तक पाटपरम्परा समान है 43 वे पाट के बाद ही ये गच्छ अलग अलग हुए।

उपरोक्त प्रतिबोधक आचार्य के नामों में लेखको ने अज्ञानतावश बहुत ही उलटफेर कर दिए है।  चुंकि यह तो निश्चित है कि हमारी वंशावली वड़गच्छ के कुलगुरु रखते थे अतः वड़गच्छ की मान्यता के आचार्य होने चाहिए। वृहदगच्छ गुर्वावली एवं तपागच्छ पट्टावली देखने पर संवत् 707, करीबन 22 वे पट्टधर  आचार्य जयदेवसूरि के समकालीन बैठता है। बलदोटा वंशावली में जो जयदेवायन्दर सूरि लिखा मिलता है वह अधिक उचित प्रतीत होता है।
इसलिए हमारा स्पष्ट मत है कि बोकड़िया गौत्र के प्रतिबोधक आचार्य "वड़गच्छ गुर्वावली" में उल्लेखित 22 वे पट्टधर जयदेवसूरि ही होने चाहिए और आपका समय भी संवत 707 के आसपास ठहरता है।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

बोकड़िया गौत्र के कुलरक्षक देव, कृष्ण क्षेत्रपाल जी (काले भेरूजी) निर्णय

बोकड़िया गोत्र के सभी परिवारों में "खेतला जी" को मानने की परम्परा विद्यमान है। न केवल मानने की परम्परा है बल्कि गृहदेवस्थान की भी परम्परा है।
बोकड़िया गोत्र में कुलदेव के रूप में खेतला जी को विशेष आराध्य माना जाता है। यहां तक की माताजी से भी अधिक खेतला जी को मानने, आराधना करने का दृष्टिगोचर होता है।

पुत्र जन्म और विवाह में विशेष आराधना व कर किए जाते है।

खेतलाजी, क्षेत्रपाल जी, भेरुजी आदि नामों से पुकारे जाते है।

प्रश्न होता है कि खेतला जी या भेरू जी, लेकिन कौनसे काले या गोरे?
तो वंशावली में स्पष्ट उल्लेख है कि
"खेतलो, 'मंडोवर रो क्षेत्रपाल ' पूजणो।"………"हेमाजी ने कालो खेतलो मंडोवर तुष्टमान हुआ।"
अर्थात् हमारे कुलदेव, हमारे क्षेत्रपाल, काले भेरुजी,  काला खेतला जी है जिनका मुख्य स्थान मण्डोर है। (चित्र : मण्डोर उद्यान स्थित काले भेरुजी)
कहते है कि बकरे छुड़वाने में देवधरजी को काले खेतलाजी की भारी कृपा रही। इसकारण भी क्षेत्रपाल की महिमा कुल में विशेष है।

पूर्ववंश "चौहान" भी "हर्षनाथ भैरव" का उपासक रहा है, कृष्ण क्षेत्रपाल को पूजने की परम्परा पूर्व जाति से रही है। वस्तुतः चौहान शिवपूजक अर्थात् शैव है। भैरव शिव का ही प्रतिरूप अथ्वा अंश है। प्रत्येक कुल के कुलरक्षक देव मानने की परम्परा रही है। बोकड़िया गोत्र के कुलरक्षक देव काले क्षेत्रपाल जी, भेरुजी है जो परम्परा, वंशावली, पूर्वजाति आदि के साक्ष्यों से सिद्ध है।



सांचौर के बोकडिया परिवारों में प्रत्येक घर में खेतला जी का देवस्थान स्थापित करने की परम्परा है।
मंड़ार में बोकड़िया बस्ती में सामुहिक एक देवस्थान पूजने की परम्परा है।
चंदेसरा, मेवाड़ में गांव में "बोकड़िया भैरव" नाम से पूजन की परम्परा है।


वंशावली के अनुसार सोनाणा के खेतला जी को भी मानने का उल्लेख है


बोकड़िया गोत्र के शिलालेख

बोकड़िया गौत्र के कतिपय शिलालेख (प्रतिमा लेख), जिसमें बोकड़िया गौत्र का उल्लेख है

(१) सं १४५८ वर्षे वैशाख वदि २  बुधे, उपकेश ज्ञातीय बोकड़िया गोत्रे, सा०  ……भा०  रूदी, पु०  जेसल भा०  जसमादे पित्रोः श्रे०  श्री पद्मप्रभस्वामि बिंब का०  रामसेनिय श्री धनदेवसूरि पट्टे श्री धर्मदेवसीरिभिः॥

( नागोर बड़ा मन्दिर, पद्मप्रभस्वामि प्रतिमा पर लेख, 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह', लेखांक १८२ विनयसागर एवं 'जैन लेख संग्रह', लेखांक 1236  नाहर)

(२) सं० १५०४ वर्षे ज्येष्ठ वदि ३ सोमे उप० ज्ञा० बोकड़िया गोत्र सा० पाल्हा भा० पाल्हणदे पु० झासा भा० जासलदे पुत्र जातेन आत्मश्रेयसे श्री सुविधिनाथ बिंब का० प्र० वृहद्गच्छे भ० श्री धर्मचन्द्रसूरि पट्टे भ० श्री मलयचन्द्रसूरिभिः॥

( सुविधिनाथ प्रतिमा पर लेख, 'बीकानेर जैन लेख संग्रह', लेखांक १३२० अगरचन्द नाहटा)

(३) सं १५६२ व० माघ सु० १५ गु० उ० बोकड़िया गोत्रे सा० जेसा भा० जसमादे, पु० राणा भा० पूर्णदे, पु० अङ्गपाल  तेजा आ० श्रे० श्रेयांस बिं० कारि० बोकड़ियागच्छे श्री मलयचन्द्रसूरि पट्टे मुणिचन्द्रसूरिभिः॥

( जयपुर सुपार्श्वनाथ पंचायती बड़ा मन्दिर, श्रेयांसनाथ प्रतिमा पर लेख, 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह', लेखांक ९१७  विनयसागर, जैन लेख संग्रह, लेखांक 1169 नाहर)

संकलन संपादन-  हंसराज बोकड़िया

रविवार, 23 अगस्त 2015

बोकड़िया और बलदोटा एक ही गोत्र


बोकड़िया गोत्र में यह जानकारी पहले से ही थी कि बोकड़िया और बलदोटा एक ही गोत्र है। कई बोकड़िया बंधुओं से मिलना हुआ तो उन्होने भी इस बात को स्वीकार किया कि बोकड़िया बलदौटा एक ही गोत्र के दो नाम है, जब बलदोटा बंधुओं से मिलना हुआ तो उन्होने भी वही बात दोहराई कि बोकड़िया बलदोटा भाई-भाई है, अर्थात् एक ही गोत्र के दो नाम है।

बोकड़िया गोत्र के इतिहास की खोज के समय जब बोकड़िया गोत्र का नामोल्लेख से अधिक कोई कोई उल्लेख ओसवाल इतिहास ग्रंथो में नहीं मिला तो एक प्रारम्भिक सूत्र के थामने के उद्देश्य से बलदोटा गौत्र के इतिहास की खोज की गई। और बलदोटा गौत्र का एक संक्षिप्त इतिहास, श्री सुखसम्पतराज भंड़ारी लिखित "ओसवाल जाति का इतिहास" नामक वृहद ग्रंथ में मिल गया। उल्लेख इस प्रकार था……

"ऐसी किम्बदंति है कि संवत् 709 में रामसीन नामक नगर में श्री प्रद्योतनसूरि महाराज मे चाहड़देव को जैन धर्म का उपदेश देकर श्रावक बनाया। चाहड़देव के पुत्र बालतदेव से 'बलदोटा' गौत्र की स्थापना हुई। इन्होने अपने नाम से 'बलदोटा' नामक एक गाँव आबाद किया।"

हालांकि इसमें बोकड़िया शब्द का कहीं उल्लेख नहीं था किन्तु एक "गाँव बसाने" के उल्लेख ने रोमांचित कर दिया। साथ ही कुछ सूत्र तो मिले ही जिस आधार पर खोज का मार्ग प्रारम्भ होता है। 'रामसीन', 'प्रद्योतनसूरि',  'चाहड़देव', 'बालतदेव', 'बलदोटा गाँव' आदि। रामसीन नगर के इतिहास के बारे तो कुछ खास नहीं मिला, हां रामसीन कस्बे का अस्तित्व मिल गया, प्रद्योतनसूरि का काल संवत 709 से मेल नहीं खा रहा था। चाहड़देव व बालतदेव का नाम किसी राजवंश में नजर नहीं आ रहा था। अन्ततः बलदोटा गांव की खोज प्रारम्भ की गई। मानचित्र में रामसीन के आस पास नजर दौड़ाने पर नजर "बरलूट" नामक एक गांव पर ठहरी। बरलूट जाकर खोज करने पर पाया कि हां इस गांव का प्राचीन नाम "बलदोट" ही था। ग्रामवासियों से पूछने पर उन्होने प्राचीन पार्श्वनाथ मन्दिर में एक  शिलालेख होने की बात कही, और कहा, कि इस शिलालेख में बलदउट का स्पष्ट उल्लेख है। यह शिलालेख मन्दिर के पुनर्निर्माण के समय तल की गहराई से प्राप्त हुआ था। उत्सुकता से उस शिलालेख को देखा गया तो बात सही निकली…

संवत 1283 का यह शिलालेख जालोर सोनगरा चौहान शासक उदयसिंह के समय का था। यह मन्दिर जिसका नाम 'मनणसिंह विहार' था जो मनणसिंह के श्रेयार्थ, वृहदगच्छ के वादिवेवाचार्य संताने श्री धनेश्वर सूरि के शिष्य गुण……सिंहसूरि के हाथों प्रतिष्ठित था। इसमें स्पष्ट इस नगर का नाम "बलदउट" उल्लेखित था।

अर्थात् बलदोटा गोत्र के इतिहास में वर्णित बलदोट गांव बसाने का तथ्य यथार्थ था और विद्यमान भी। गोत्र का इतिहास सत्य के करीब होने का यह मजबूत साक्ष्य था।

उसी दौरान हमारी कुलगुरुओं की खोज भी सफल हुई और हमें हमारी वंशावली की प्रतिलिपि उपलब्ध होने के सुखद समाचार मिले, पुरानी लिपी पढ़ने वाले के सहयोग से उस वंशावली के प्रारम्भीक अंश का उतारा लिया गया। और हमारे आश्यचर्य का ठिकाना न रहा कि इस वंशावली का शीर्षक ही "बोकड़िया-बलदोटा" था। और इतिहास में वर्णित बलदोट गाँव बसाने की वही घटना उल्लेखित थी।

यह प्रबल साक्ष्य था यह निर्णय करने में कि "बोकडिया और बलदोटा" एक ही गोत्र है।

- हंसराज बोकड़िया


शनिवार, 22 अगस्त 2015

बोकड़िया गौत्र का इतिहास

बोकड़िया-बलदोटा
संवत् 707 में रामसीण नगर पर चौहान वंशीय राजा सामंतसिंह राज्य करते थे। एकदा अरण्य में आखेट क्रिड़ा के समय सामंतसिंह की भेंट एक जैनाचार्य से हुई। शिकार जैसी हिंसक प्रवृति को दुर्व्यसन बताते हुए, जैनाचार्य श्री जयदेवसूरि ने राजा को शिकार आदि सात व्यसन के त्याग की प्रेरणा दी।
आचार्यवर जयदेवसूरि ने स्पष्ट करते हुए कहा,
“द्युत च मांस च सुरा च वेश्या, पापार्धिचौर्ये पर-दार सेवा।
एतानि सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति॥“
राजा सामंतसिंह ने जीवदया का प्रतिबोध पाकर, जैन धर्म अपनाया एवं श्रावकोचित व्रत-नियम ग्रहण किए।
सामंतसिंह के दो पुत्र थे, श्रीपाल एव चाहड़देव। इन्होने संवत् 709 में भगवान महावीर का “जांगलगढ़” नामक जिनप्रासाद बनवाया। प्रतिष्ठा भट्टरक श्री देवानन्द्सूरि ने सम्पन्न की।
आगे चलकर इस वंश के बलिष्ट यौद्धाओं ने रामसीण पर हुए आक्रमण का बलपूर्वक प्रतिरोध किया एवं उन्हे पराजित किया। परिणाम स्वरूप इन्हे साक्षात बलदेव की उपाधि मिली। इनकी संतति को “बलदोटा” विरुद प्राप्त हुआ। संवत् 1011 में इन्होने "बलदोट" नामक एक नगर बसाया।
आगे चलकर श्रीपाल के वंशज मण्डोर आ बसे। यहाँ श्री पहाड़ जी बलदौटा ने, संवत 1095 में श्री कुंथुनाथ भगवान का बावन जिनालय मन्दिर बनवाया। सम्भवतः आचार्य वर्धमानसूरि ने प्रतिष्ठा सम्पन्न की।
संवत् 1123 में मण्डोर पर किसी सुलतान का भीषण आक्रमण हुआ। उसने मण्डोर को तहस नहस कर कब्जा कर लिया। वहां प्रतिदिन चार हजार बकरों का वध किया जाता था। उस समय श्रेष्ठ पहाड़ जी के पुत्र देवधर जी बड़े साहसी पुरुष थे। जीवों की हिंसा देखकर उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो उठा। उन्होने सुलतान से मिलकर उसे समझाने की ठानी। सुलतान को युक्तियुक्त समाधान देकर, हजारों बकरों को अभयदान दिलवाया। इस जीवदया-प्रतिपाल के परिणाम स्वरूप, संवत् 1123 में  देवधर जी को “बोकड़िया” विरुद प्राप्त हुआ। इस तरह श्री देवधर जी बलदोटा से बोकड़िया गौत्र की स्थापना हुई।

-  हंसराज बोकड़िया

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

बोकड़िया गौत्र की उत्पत्ति का एक मात्र कारण : जीवदया

बोकड़िया गौत्र के उद्भव से "जीवदया" का सीधा कारण………

क्षत्रिय जाति से जैन-दर्शन अंगीकार करने का एक मात्र कारण जीव-अनुकम्पा रहा। न कोई चमत्कार न किसी विपत्ति के निवारण का प्रयोजन।प्रथम शिकार स्वरुप अनावश्यक हिंसा से निवृति पाने के लिए एवं  दूसरी बार लाखों जीवों की हत्या की सम्भावना से अनुकम्पा काज। कोई अतिश्योक्ति नहीं, कोई मुर्दा के जीवित होने आदि के चमत्कार का प्रपंच नहीं………

1- जैन प्रतिबोध :-
शिकार करते हुए चौहान वंशीय राजा सामंतसिंह को आचार्य जयदेवसूरि ने जीवहिंसा से निवृति का उपदेश दिया। आचार्य ने पापकारी सात व्यसनो के बारे में राजा को विस्तार से बताया। शिकार उन व्यसनों में से एक है। जीवों के प्रति अनुकम्पा से द्रवित होकर राजा ने जैन धर्म अपनाया। सात व्यसनों के  त्याग से व्रतधारी श्रावकधर्म में प्रवेश हुआ।

2 - बोकड़िया गौत्र स्थापना :-
वध के लिए लाए गए लाखों बकरों को श्री देवधर जी ने अभयदान दिलवाया। इसी घटना के परिणाम स्वरूप बोकड़िया गौत्र की स्थापना हुई।

अभयदान श्रेष्ठ दान
अहिंसा परमो धर्मः
जीवदया ही धर्म है।

- हंसराज बोकड़िया